‘एक शाम रोआनु के साथ ‘ का अंतिम भाग।
दिल ना उम्मीद तो नहीं,
नाकाम ही तो है ,
लम्बी है गम की शाम,
मगर शाम ही तो है ।
यही सोच मन में छा रहा था । आख़िर यह मुसीबतों भरी शाम कबतक मुझे पीड़ा देती रहेगी। एक ना एक समय मैं इस स्थिति से बच निकलूंगा।
बारिस रुक चुकी थी । लेकिन आसमान पर घनी बादलें चमकती रही। ठंडी ठंडी पवन बहती रही । में ट्रक चालक से कुछ छोड़ छोड़ कर बातें करता रहा। पंजाबी चालक ने उनके भाषा में आधा अधूरा कुछ गुनगुनाता रहा । जो की मुझे बिलकुल समझ नहीं आया। जब मौका मिला तभी मैंने भी उनको… राहों पे रहते हैं… यह गाना सुना दिया। उन्होंने भी एक जोरदार भजन सुरु किये और गाते गाते हमलोग रैराखोल पहुँच गए। ट्रक से उतारते ही मैंने उनको मेरा सुक्रिया ब्यक्त किया । उन्होंने भी हाथ उठाते हुए स्वीकार किये और फिर आगे बढ़े।
यह रास्ता स्टेशन के मुख्य प्रबेश द्वार तरफ नहीं हैं । इसलिए स्टेशन की अंदर जाने का सुविधा के लिए एक ढलान सा सामयिक रास्ता बनाया गया हैं।
यह ढलान कच्चा मिटटी और पत्थर से बना हुआ हैं। जगह जगह पर गड्ढा भी है। अंधेरो में बहुत संभलके चढ़ना पढ़ा। पहुँचके देखा पूरा स्टेशन अंधेरा ही अंधेरा में डूबा हुआ हैं।
उस समय रैराखोल में ओवर हेड इलेक्ट्रिफिकेशन का काम सुरुयात नहीं हुआ था। एक स्टेशन के पंखें और लाइटिंग अलग अलग दो हिस्सों में बंटा रहता हैं। रातके समय गाड़ी रहनेसे 30% और 70% दोनों लाइटिंग रहता था। गाड़ी नहीं रहनेसे केवल 30% लाइटिंग ज्वल ता था। इससे बिजली की बचत होती हैं। परंतु रोआनु के तांडब् के कारण उस समय बिजली पूरा के पूरा गुल थी।
फिर ओवर ब्रिज होते हुये स्टेशन बिल्डिंग तरफ पहुँचते हुए देखा मधुमक्खियों का एक बड़ा सा छत्ता। अंधेरो में इनलोग सक्रिय नहीं थे। इतनी अंधेरोमे भी शरीर के हलचल से महमूद सर मुझे पहचान लिए । गुदाम का चाबी दिए। मैंने जैसे ही ताला को खोलने के लिए पकड़ा तभी एक कीड़ा मुझे काट लिया। मोबाईल लाइट पे भी समझ नहीं पाया की किस कीड़े ने कटा।
बाय हात में जोरदार दर्द होंने लगा। लॉक खोलकर दरवाजा खुलतेही सड़ा चूहे की बदबू आया। देखा मकड़ियो ने अपना जाल कुछ ही घंटो में बुन चूका हैं। फ्लेक्स बोर्ड आट बाई पांच फूट का हैं। छुतेहि एक छिपकली नीचेसे ऊपर की तरफ भागा। एहि हैं तीन भाषाओं में लिखा गया रैराखोल का ट्रेन समय सारणी। लॉक करके चाबी वापस करदिया। फ्लेक्स लेकर मैं ओवर ब्रिज होते हुए ढलान पर पहुँचा।
ढलान पर जाकर देखा की नारायणी बस घना अंधेरे में खड़ी थी। यह नारायणी एक मिनि बस हैं। बहुत बार सफ़र किया हूँ इसिपे। यही मेरा कहने के लिए हमसफ़र हैं।
नजदीक जाकर देखा की बस का दरवाजा अंदर से बंध हैं। इसी वक़्त पूरी सम्बलपुर इंटर सिटी एक्सप्रेस का मैन्युअल अनाउंसमेंट हुआ। मैंने दरवाज़ा को हातो से पीटा। आट दस बार पीटने के बाद खलासी ने किसीभी तरह उठा । हाथ पैर खुजलाया और कहा इतनी बड़ी फ्लेक्स बस के छत पर आंटेगा नहीं। मैंने द्विगुना भाड़ा देनो को राजी हुआ तो बात बनी।
उसने कहाँ गायब हो गया। कुछ समय में चालक और टिकट कन्डक्टर आकर पंहुचा। उनलोग बस की छत पर चढ़ने को राजी नहीं हुआ।
उपाय नहीं था। इसलिए मैंने बस के छत पर चड़ना सुरु किया। पर मेरा वजन के वज़ह से बस हिलना सुरु किया। छत भी ढलान पूर्ण था। उसके ऊपर थोडासा हलचल होतेही लग रहाथा की बस आगे ना फिसल जाये। मैंने उनलोगों से रस्सी मांगा। फ्लेक्स फ्रेम बड़ी होने की कारण ठीकसे सेट नहीं हो पाया। उतारते वक़्त बस और ज़ोरोसे हिलने लगा। पर मैं सकुशल लौट आया। बस के अंदर जाकर बैठा।
इंटर सिटी के करीब त्रिश सवारी बस के अंदर सवार होगये। और खड़ा होनेका भी जगह नहीं बची।
बस स्टार्ट लेकर पांच मिनट खड़ा रहा। फिर ढ़लान में हिलते डुलते निचे उतरने लगा। गढ्ढे के वजह से कुछ ज्यादा ही हिल रहा था।
एक मिनट बाद एक चढ़ाई रास्ते पे बस चढ़ नहीं पाया । बस से दस आदमी उतारकर बस को धकेला तोह जाकर बस चढाई चड़ा।
बिस मिनट बाद और एक चढाई आया। चारों तरफ घनी जंगल। हाती, भल्लुओं, भेड़िये अक्सर घूमने देखने को मिलता हैं । तब पंद्रह आदमी उतार कर बस को धकेला तोह बस चड़ा।
बिस मिनट बाद सबसे ख़तरा चढ़ाई आया। जहाँ कुछ ही दिन पहले तीन हाती पास किया था। कभी कभी यह हाती गाँव में तबाह मचाती रहता हैं। हाती पैसेज वाला बोर्ड भी लगा हुआ हैं। नजदीक का गांव कदली गढ़ से करीब दस किमी आगे हमलोग आचुके थे। बिस आदमी उतार कर धकेलने से भी बस चड़ा नहीं। चालक ने भी बहुत कौशिस की। पर दो किमी का चढाई इतना आसान नहीं था। किसीका मोबाइल में टावर नहीं था की एक कॉल किया जा सके। सब बेकार हो गया। ज्यादातर लोग रास्ते पे पैदल चलना सुरु कर दिया। मैं भी चलना सुरु किया। करीब दो सौ मीटर जानेके बाद मुझे बस के छत पर रखा हुआ फ्लेक्स का खयाल आया ।
मैं पीछे दौड़ा और बस के पास पंहुचा। और तब अचानक तेज़ बारिश सुरु हो गया। बस का दरवाजा ताला बन्ध हो चूका था। ना तोह चालक ना ही कंडक्टर । किसीको बस के आसपास देखने को नहीं मिला। क्या करूँ सोच ना पाया। सीधा बस के छत पर चड़ा और फ्लेक्स के नीचे बारिश से बचने के लिए सो गया। और तभी मेरी मोबाईल बैटरी खत्म हो गया।
कम्बख़त मेरी किस्मत। बारिस रूकती नहीं। रास्ता ठीक से नज़र नहीं आता। आगे की पीछे से एकभी गाड़ी पास नहीं कर रहा हैं। भुखा प्यासा होकर मन ही मन दुखी दुखी गाता रहा।
यह समय बहत हैं कठिन मगर…..
ना उदास हो मेरी हमसफ़र।
क्या जिंदगी हैं। कभी तोह किसीका काम में नहीं आया। ना तोह बुढ़ापा में माँ बाप के खयाल रख पाया , ना ही इस जीवन में कुछ करके दिखाया। बहुत ही अफ़सोस भरा यह जीवन। इसे बचाके रखने का क्या जरुरत। नहीं , मैं इतना कमज़ोर इंसान नहीं हूँ। इससे भी कठिन परिस्थितियों का सामना पहले कई बार कर चूका हूँ।
तभी आँख में कुछ गिरा। जैसेही रुमाल छुया तोह मुझे हँसी आ गयी। रुमाल के अंदर ढेर सारी पकौड़े अभी बारिश में भीग कर रस बड़ा बन चूका था। भूक के मारे एक एक कर खाता गया। भूक मिटता गया। पकौड़े में भरपूर पानी रहने के वजह से प्यास भी मिटता गया। केवल आधा पकौड़े खाकर मैं तृप्त हो गया। बारिश भी धीरे धीरे कम होने लगा। एक समय बहुत ही हल्का सा बारिश होता रहा। मुझे समय का कोई सही हिसाब नहीं रहा।
बस की छत से उतरने के लिए मन हुआ। फ्लेक्स हटाते ही दूर जंगल तरफ नज़र गया। एक जोड़ें आँख जलती हुयी दिखाई दिया। कुछ समय बाद एक और जोड़ें आंखों पहले वाला के पास आया। फिर और एक जोड़ें।
मैंने फ्लेक्स को ढाल बनाते हुए सोये जगता रहा। समय बीतते गया। पर मैंने सजाग रहा।
कुछ घंटो बाद आसमान में हल्का सा रौशनी छाने लगा। अच्छी तरह से आसपास देखलिया। सब जलता हुआ आँखे गायब था। मैंने फ्लेक्स को निचे उतारा और खुद भी निचे उतरा। कुछ दूर जातेही एक पेड़ का टुटा हुआ लकड़ी मिला। इस्से मैं हतियार बनाकर और फ्लेक्स को ढाल बनाकर बेयर ग्रिल्स की तरहा आगे चलता गया। एक किमी जाने के बाद रास्ते के ऊपर मुझसे प्राय आधा किमी दूर एक अजीब धुन्दला दृश्य देखने को मिला। जो की एक मोटा सा हाती के पिछवाड़ा लग रहा था। कलर भी वैसा ही था पर बिल्कुल हिलता डुलता नज़र नहीं आया। आगे बढ़ना उचित होगा की नहीं यह सोचने लगा। पर दस पंद्रह मिनट कुछभी हलचल नहीं दिखा तोह मैं बड़ी साबधानी से आगे बढ़ता गया। रातके अंधेरा थोड़ा ही बची थी। करीब दो सौ मीटर दुरी पे मुझे समझ आया की यह एक पानी टैंक हैं। रास्ता मरमती काम के किये रखा गया हैं।
टैंक की करीब होते ही मुझे अचंभित होना पड़ा। एक छोटा सा प्यारा सा भल्लू टैंक का नल को अपना दांतों से काट रहा था। मैं तुरंत टैंक के छत पर चढ़ गया। मुझे देखते ही उसने कुछ कदम पीछे हटा। और कुछ ज्यादाही उत्सुकता से मेरी तरफ देखते रहा। पर भागा नहीं। उसके बाद उसने कुछ सुंगते सुंगते रास्ते के ऊपर पीछे तरफ चलता गया। रास्ते के ऊपर बिस मीटर दुरिपे कुछ गिरा था । जिसे उसने खाने लगा। मैं ताज्जब होगया जब में देखा की उसने मेरा गिरा हुआ पकौड़ा का पोंटला खुलने का प्रयास कर रहा हैं। चाहता तोह यह सुन्दर दृश्य कुछ समय देख सकता था। परंतु मुझे ज्ञान था की यह बच्चा अकेला नहीं हैं। इसके माँ आसपास ही होगा। और दोनों मिलकर मेरा नुकसान पहुँचा सकता था। अगर मैं इस नन्हे से जीव को परेसान किया तोह पुलिस मुझे पकड़ सकता था। मौका देखकर भागने के लिए मैं बिल्कुल तैयार था। मैं नीचे कुद गया और दौड़ लगाया। पांच छय सौ मीटर । इतना गति एक समय पन्द्रह सौ मीटर रेस के लास्ट लैप में करके दिखाया था। मैं पूरी तरह तंदरुस्त था। हर रोज़ पांच किमी मॉर्निंग वॉक जाता था। इस लिए मेरे लिए भाग कर जान बचाना आसान था। आगे पन्नेई ठकुरानी मंदिर नज़र आया और मैं चलता गया। फिर श्री कृष्णा पेट्रोल पम्प पर पहुँच गया।
देखा की पिछले शाम का वही भुत सवार बस ठीक होकर डीजल ले रहा हैं। बस मालिक मेरी तरफ आये। मुझको बस पे बैठाये। फ्लेक्स को अंदर रखे और हम बौद्ध बस स्टैंड की तरफ रवाना हो गए।
लेखक
देबासिस सिन्हा
मुख्य आरक्षण लिपिक
रैराखोल, पूर्ब तट रेलवे।