वो मरा हुआ चूहा (प्रेरणादायक कहानी)

वो मरा हुआ चूहा (प्रेरणादायक कहानी)

 

बात बहुत पुराने जमाने की है। किसी गाँव में एक अत्यन्त गरीब नवयुवक रहता था जिसका नाम था सुखीराम। लेकिन यह केवल नाम का ही सुखी था बाकी उसके पूरे जीवन में दुख–ही-दुख भरे पड़े थे। जब सुखीराम छोटा था तभी उसके माँ-बाप गुजर गए। जमीन-जायदाद भी कुछ नहीं था। अपना जीवन बड़े कष्ट एवं दुःख से बिता रहा था। एक दिन ऐसे ही दुख व अवसाद में बैठा अपने जीवन को कोस रहा था तभी उस रास्ते से कुछ व्यापारीजन बातें करते हुए चले जा रहे थे। उस व्यापारी का जो प्रमुख था वह अपने दूसरे सहयोगियों को बता रहा था कि,दुनिया की कोई भी वस्तु बेकार नहीं होती है। अगर कोई साधारण व्यक्ति भी चाहे तो बड़ा आदमी बन सकता है बशर्ते कि उसका व्यवहार अच्छा हो, मृदुभाषी हो, मेहनती हो एवं हर तुच्छ-से-तुच्छ वस्तु की कद्र करता हो। उनके साथ चल रहे एक सहयोगी ने मजाक में उनसे पूछ लिया कि, सेठजी, ये जो मरा हुआ चूहा पड़ा है सड़क के किनारे, क्या उससे भी बड़ा व्यापारी बना जा सकता है“? उस व्यापारी प्रमुख ने कहा, क्यों नहीं जरूर। अगर कोई व्यक्ति चाहे तो वह इस मरे हुए चूहे से भी अपना व्यापार शुरु कर सकता है एवं बड़ा व्यापारी बन सकता है“I

          इस व्यापारी प्रमुख की बातों को सुखीराम ने सुन लिया था। पहले तो इसे हँसी आई कि भला ऐसे भी हो सकता है कि यह मरा हुआ चूहा किसी को व्यापारी बना दे। लेकिन दूसरे ही पल सुखीराम ने सोचा कि इतने बड़े व्यापारी ने बोला है तो चलो इस मरे हुए चूहे को लेकर चलते हैं कि कुछ होता है कि नहीं। फिर सुखीराम ने चूहे को पूँछ पकड़कर उठाया और रास्ते पर चलने लगा। कुछ लोग इसे देखकर इसका मजाक भी उड़ा रहे थे लेकिन सुखीराम चुपचाप रास्ते पर चले जा रहा था। उसी रास्ते पर जमींदार का घर पड़ता था। जमींदार के बेटे ने एक बिल्ली पाल रखी थी, जैसे ही उस बिल्ली ने सुखीराम के हाथ में चूहे को देखा तो उसे खाने के लिए कूदने लगी। जमींदार के बेटे ने सुखीराम को बोला कि, यह चूहा कितने में दोगे। सुखीराम ने बोला, हुजूर की जो इच्छा हो दे दीजिए। जमींदार के बेटे ने सुखीराम को दो मुद्रा देकर चूहा ले लिया। सुखीराम ने सोचा कि इन मुद्राओं से अब क्या करूँ। तभी उसने देखा कि गाँव के एक ऊँचे टीले पर 40 से 50 मजदूर कड़ी दुपहरी में काम कर रहे हैं और वहाँ पीने की पानी की कोई सुविधा नहीं है। सुखीराम पॉकेट से जरूर गरीब था पर दिल का अमीर था। उसने झटपट बाजार जाकर दो मुद्रा में एक मिट्टी का बड़ा सा घड़ा खरीद लिया और साथ में एक मिट्टी का ग्लास और ढक्कन भी ले लिया। पास के तालाब में जाकर उसने शुद्ध शीतल जल भर लिया एवं उसे लेकर ऊँचे टीले पर जाकर बैठ गया। वहाँ पर सुखीराम ने सभी मजदूरों को बुला-बुलाकर पानी पिलाया। जब कभी पानी समाप्त हो जाता तो वह पुनः नीचे जाकर शुद्ध जल भर लाता। सभी गरीब मजदूर सुखीराम के सेवा भाव से अत्यंत प्रसन्न हुए। सभी मजदूरों ने अपने कलेवे में से सुखीराम को खाना खिलाया और शाम को जाते वक्त सबों ने अपने हिस्से की घास से एक-एक गठ्ठर सुखीराम को दे दिया। अंत में सुखीराम ने देखा कि काफी ताजी घास जमा हो गई है तो सुखीराम ने उन सभी घासों को बाजार में जाकर बेच दिया। इससे करीब बीस मुद्राएँ प्राप्त हो गईं। अब सुखीराम प्रतिदिन प्रत्येक मजदूर को पानी पिलाता एवं संध्या में प्राप्त घास को बाजार में बेचकर पैसे जमा करता।

          एक दिन सुखीराम को पता चला कि दूसरे प्रदेश के कुछ बड़े व्यापारीगण अपने कारवां के साथ यहाँ पर कुछ दिनों के लिए रुकेंगे। उनके कारवां में काफी मात्रा में घोड़े एवं बैल आदि होंगे जिन्हें हरे चारे की जरुरत होगी। सुखीराम के अच्छे व्यवहार के कारण वे सभी मजदूर उसे अपने पुत्र की भांति प्यार करने लगे थे। सुखीराम ने उन सबों से निवेदन किया कि मुझे अत्यधिक मात्रा में घास की जरुरत है जो मुझे कल चाहिए। आपका जो भी पारिश्रमिक बनता है  मैं आपको घास बिक्री करने के पश्चात् दे दूँगा। उन सबों ने कहा कि बेटा तुमने निश्चल हृदय से हमारी सेवा की है। बेफिक्र रहो कल तुम्हें 10 बैलगाड़ी घास मिल जाएगी।

सुखीराम 10 बैलगाड़ी भरी घासों को लेकर उस जगह पर पहुँच गया जहाँ पर व्यापारियों का कारवां ठहरा हुआ था। उन व्यापारियों के प्रमुख का नाम था धनपद राय। धनपदराय बड़े परेशान थे कि इतने जानवरों के लिए हरा चारा कहाँ से लाए। तभी सुखीराम ने वहाँ जाकर धनपदराय को प्रणाम किया एवं उसने बताया कि मैं 10 बैलगाड़ी भरकर हरे घास लाया हूँ  जो आपके जानवरों के एक दिन के लिए पर्याप्त हैं। धनपदराय की खुशी का ठिकाना न रहा। जिस चीज के लिए वे चिन्तित हुए जा रहे थे, वह उसे प्राप्त हो चुकी थी। धनपदराय ने सुखीराम से पूछा कि इसके बदले में उसे कितनी मुद्राएँ चाहिए। सुखीराम ने कहा हुजूर…I जो आपकी इच्छा हो दे दें। धनपदराय ने सुखीराम को 1000 मुद्राएँ दे दी और साथ में यह भी बोल दिया कि पूरे पंद्रह दिनों के लिए उसे ही हरे घास का प्रबंध करना है। सुखीराम मजदूरों को पैसे देकर प्रतिदिन घास लेकर धनपदराय को बेच आता। धनपदराय एक पारखी व्यापारी था, उसने इन पन्द्रह दिनों में यह जान लिया कि सुखीराम कीचड़ में खिले कमल की तरह है। वह गरीब जरूर है लेकिन ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ, मृदुभाषी, मनमोहक, तेज दिमाग वाला एवं सबको साथ लेकर चलने वाला इंसान है। उसे सुखीराम के बारे में सबकुछ पता चल चुका था। धनपदराय ने सुखीराम को पूछा कि क्या वह उसके साथ व्यापार में भागीदार बनेगा? सुखीराम ने धनपदराय के पैर पे झुककर नमन किया एवं अश्रुपूरित नयनों से बोला, मैंने अपने माँ-बाप को बचपन में ही खो दिया। आप साक्षात मेरे पिता समान हैं। आप जो बोलेंगे मैं वह करूँगा। धनपदराय ने सुखीराम को गले से लगा लिया। कुछ समय पश्चात् ही सुखीराम धनपदराय का सबसे विश्वासपात्र बन गया। धनपदराय ने अपनी एकलौती पुत्री का विवाह सुखीराम से करा दिया। अब सुखीराम पूरे प्रदेश का सबसे बड़ा व्यापारी बन चुका था।

आज सुखीराम को बरबस ही उस व्यापारी की बातें याद हो आई जिसने कहा था कि दुनिया की कोई भी वस्तु बेकार नहीं होती। अगर कोई व्यक्ति चाहे तो वह इस मरे हुए चूहे से भी व्यापार शुरू कर सकता है

आज सुखीराम अपने प्रदेश का सबसे बड़ा व्यापारी बन चुका था और इसकी शुरुआत उसने एक मरे हुए चूहे से की थी। अतः इस कहानी से हमें यह प्रेरणा मिलती है कि दुनिया की कोई भी वस्तु बेकार नहीं है। अगर उसे सही तरीके से उपयोग में लाया जाए तो हर वस्तु का अपना एक महत्व होता है एवं उसकी एक उपयोगिता होती है।

 

            आशीष कुमार साह

            कंसोल संचालक

                                                                                                                                                           वाणिज्य विभाग

                                                                                                                                                   पूर्व – तट रेलवे                                                                                                                                                                  भुवनेश्वर

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