मेरा व् स र स परिवार

वी सी आर सी मात्र चार शब्दों का संगम नही है, ये मेरे जैसे कई सारे साथियों के लिए जीवन जीने का उद्देश्य है या कहें एक मंत्र है जो हमें आज के युग में मित्रता और स्नेह के नए आयाम सिखाता है । देखा जाए तो मित्रता के बंधन को निर्वाह करने के सूत्र सदियों पुराने हैं पर आज के आधुनिक युग में इसके मायने धुंधले से पड़ गए हैं। केवल हमारा वी सी आर सी परिवार एक ऐसा परिवार है जो मित्रता की सदियों पुरानी परंपरा को हृदय से न केवल आत्मसात किये हुए है बल्कि उसे दिलों जान से निभा भी रहा है। न जाने कितनी ही बार अपने जीवन में मैंने इस जज़्बे का अनुभव किया है। दिल्ली में बैठे बैठे जब चेन्नई में बैठे किसी मित्र को हम कोई काम बोलते हैं तो वो पूरी शिद्दत के साथ उसे पूरा करने का प्रयास करता है। ऐसे ही कोई हमें कुछ बोले तो उसे पूरा करने का भरपूर प्रयास रहता है। यही प्रेम, स्नेह और आत्मीयता का बंधन हम सभी को एक सूत्र में पिरोता है जिसका नाम वी सी आर सी है। मैं इस परिवार में कैसे दाखिल हुआ उसकी कहानी आज इस ब्लॉग के माध्यम से आप सभी को बता रहा हूँ। हो सकता है आपकी कहानी मेरी कहानी से मिलती हो।

फ़रवरी के दूसरे रविवार का मेरे जीवन में एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। कहानी 8 फ़रवरी 1992 की है, फ़रवरी का दूसरा रविवार था। 1992 में उस समय मैं अपनी दसवीं कक्षा यानि के बोर्ड एग्जाम की तैयारी में लगा हुआ था।

उस दिन, (यानि कि 8 फरवरी 1992 को) मैं सुबह जल्दी उठ गया, सर में तेल लगा कर, डेनिम की जैकेट और सर पर टोपी लगा कर मैं अपने जीवन का पहला और आखिरी कंपीटिटिव एग्जाम देने निकल पड़ा। घर से निकलने से देख लिया कि मैंने अपना लाल रंग का 12 रुपये पचास पैसे वाला डी टी सी का पास अपनी जेब में रख लिया है।

मैं जा रहा था रेलवे कमर्शियल वोकेशनल कोर्स का इम्तेहान देने। मेरा सेन्टर कैलाश कॉलोनी के समर फ़ील्ड पब्लिक स्कूल में पड़ा था। मेरा घर उत्तर दिल्ली में है और मेरा सेन्टर पड़ा दक्षिण दिल्ली में, उस ज़माने में यातायात के नाम पर केवल डी टी सी बस ही मुख्य साधन होती थी। एकबारगी तो पिता जी ने ये कह कर परीक्षा में सम्मिलित होने से मना कर दिया कि सेन्टर बहुत दूर और बच्चा बहुत छोटा है, (उस समय मैं उम्र के 16 पड़ाव पार कर चुका था).

जैसे तैसे, कुछ लोगों से जानकारी एकत्रित कर मैं पेपर देने निकल पड़ा। जब कैलाश कॉलोनी के बस स्टैंड पर उतर कर सेन्टर की ओर बढ़ने लगा, तो देखा कई सारे बच्चे अपने माता पिता के साथ अपने झोले उठाये चले जा रहे थे, मैंने उत्सुकता वश कई लोगों से बात की तो पता चला कोई जम्मू, कोई लुधियाना, कोई आगरा तो कोई इलाहाबाद से आया था। मैं स्तब्ध हो गया और उनसे पूछा भाई इतनी दूर से ये पेपर देने आए हो? उस समय मुझे भी रेलवे में कोई दिलचस्पी नही थी, मुझे तो एन डी ए दे कर फौज़ में जाना था। मैंने सोचा ये पेपर दे आता हूँ इससे एक आईडिया लग जायेगा।

पर शायद किस्मत को कुछ और ही मंजूर था, 64000 बच्चों में से 40 का चुनाव हुआ, जिसमें मेरा भी एक नाम था। इस सफलता का श्रेय केवल और केवल मेरी बड़ी बहन ऋतु को जाता है।

इसके बाद मैंने जीवन में कभी कोई एग्जाम दिया ही नही रेल में आ कर रेल का हो कर रह गया। बाकी सब इतिहास है।

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